संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development)
Cognitive Development in Hindi
- जन्म के कुछ घण्टों के पश्चात् ही शिशु को इन्द्रियों के सहारे प्रारम्भिक अनुभव प्राप्त होते हैं | प्रारम्भ में शिशु के लिये किसी भी वस्तु का होना या न होना, किसी बात को याद रखना, सोचना, तर्क शक्ति आदि बातों का कोई अर्थ नहीं होता है | किन्तु आयु के बढ़ने के साथ-साथ बच्चे में अनेक ज्ञानात्मक योग्यताओं का विकास होता है और वह वस्तुओं को पहचानने लगता है, याद रखने लगता है तथा क्यों व कैसे जैसे प्रश्नों से अपनी तर्क शक्ति व चिन्तन का विकास करता है | दूसरे शब्दों में संज्ञान से आशय उन सभी मानसिक क्रियाओं व व्यवहारों से है जिनके द्वारा बालक सांसारिक गतिविधियों को ग्रहण करता है, अधिगमित करता है, स्मरण रखता है एवं इसके बारे में सोचता है।
- साधारण बोलचाल की भाषा में कोगनिटिव शब्द (Cognitive) का अर्थ है – “जानना” | ज्ञानात्मक विकास का अभिप्राय – “बच्चे की उन मानसिक प्रक्रियाओं के विकास से है जिनके परिणाम स्वरूप वह अपने तथा अपने आसपास के संसार के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है” | इसी ज्ञान के आधार पर बच्चा संकल्पना (Concepts) बनाता है, तर्क करके निष्कर्ष निकालता है तथा अपनी समस्याओं को सुलझाता है। अत: संज्ञान (Cognition) वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिशु को किसी वस्तु, घटना या परिस्थिति का ज्ञान होता है | मानसिक क्रिया को तीन चरणों में बाँटा जाता है। संज्ञान, भावबोध और क्रियावृति | उदाहरण के लिए अंधेरे में जब कोई चीज रेंगती हुई दिखाई देती है तो सांप का बोध होता है। यह संज्ञान है। सौंप देखने के पश्चात् जो भय की अनुभूति होती है, वह भावबोध है | भय के पश्चात् जब छिपने या भागने की प्रक्रिया होती है तो उसे क्रियावृति कहते हैं। संज्ञानात्मक विकास की निम्नलिखित चार अवस्थाएँ हैं
- जन्म से दो वर्ष की आयु तक — संवेदी गामक अवस्था (Sensory motor stage)
- दो से सात वर्ष तक – पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage)
- सात से ग्यारह वर्ष तक – मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage)
- ग्यारह से सौलह वर्ष तक — अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational stage)
संवेदी गामक अवस्था (Sensory motor stage):
- जनम से लेकर दो वर्ष तक की अवस्था को संवेदी गामक अवस्था कहते है | इस अवस्था में बच्चा अपनी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से अनुभव प्राप्त करता है | शिशु अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों – आँख, कान, त्वचा, जीभ तथा नाक आदि से प्राप्त विभिन्न संवेदों जैसे देखना, सुनना, छूना, स्वाद व सूंघने द्वारा ही अपने आसपास के वातावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है तथा विभिन्न चीजों में भिन्नता करना सीखता है। जन्म के समय बच्चे की सभी ज्ञानेन्द्रियाँ पूर्ण रूप से विकसित होती हैं तथा धीरे-धीरे ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाशीलता बढ़ती जाती है। जीवन के प्रारम्भिक दिनों में शिशु संवेदात्मक उद्दीपनों (Sensory stimulation) के प्रति सहज क्रियाएँ करता है जैसे भूख लगने पर रोना | धीरे-धीरे वह आकस्मिक रूप से नई प्रतिक्रियाएँ सीखता है जैसे मुँह में अंगूठा जाने पर चूसन | तत्पश्चात् वह इन नई सीखी हुई प्रतिक्रियाओं को दोहराता है क्योंकि उसमें उसे आनन्द मिलता है | समय के साथ-साथ वह अपने अतीत के अनुभवों का प्रयोग तात्कालिक समस्याओं के समाधान हेतु करता है | गर्म पानी या दूध में अंगुली डालने पर जलने से वह दुबारा कभी भी गर्म पानी व दूध आदि में हाथ नहीं डालेगा तथा इशारे से समझा देगा कि दुध ठण्डा करने की आवश्यकता है | धीरे-धीरे दिन प्रतिदिन वह नये-नये व्यवहार सीखता है एवं प्रतीकों (Symbols) का प्रयोग करना प्रारम्म कर देता है।
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था :
यह दो से सात वर्ष तक की अवस्था है | इसमें बच्चा नई सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता है। इस अवस्था में बच्चे की सोचने की क्षमता में परिवर्तन आता है और वह अपने चारों ओर दिखाई देने वाली वस्तुओं के बारे में सोचना आरम्भ कर देता है | अनेक प्रकार के प्रतीक उसकी स्मृति में जुड़ते जाते हैं तथा वह प्रतीकों को क्रियाओं से जोड़ने लगता है। उदाहरण के लिए जब भी परिवार का कोई सदस्य जूते पहनने लगता है तो वह समझ जाता है कि वह बाहर जा रहा है। इस अवस्था में वह शब्दों का उच्चारण भी करने लगता है और उसका शब्द ज्ञान बढ़ता है।
इस आयु में बच्चा स्वकेन्द्रित (Self centred) होता है | वह निर्जीव वस्तुओं को वास्तविक मानकर Tl खिलौनों से खेलता रहता है | वह अधिकतर ख्याली दुनिया में खोया रहता है, यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को अधिक महत्त्व देता है और तर्क देने पर भी समझने की कोशिश नहीं करता है। उदाहरण के लिए छोटे व चौड़े गिलास की अपेक्षा पतले व लम्बे गिलास को बड़ा समझता है तथा यह समझाने पर भी कि दोनों गिलास बराबर हैं वह यह यह समझने को तैयार नहीं होता है। इस आयु वर्ग में बच्चे प्रायः यथार्थ से दूर अत्यधिक कल्पनाशील एवं सृजनशील होते हैं ।
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था :
- यह सात से ग्यारह वर्ष तक की अवस्था है तथा इसमें बच्चे अधिक व्यवहारशील व यथार्थवादी हो जाते हैं। वे कल्पना व वास्तविकता में अन्तर करना सीख जाते हैं तथा सच्चाई को समझने लगते हैं। ये बच्चे पारिवारिक रिश्ते समझने लगते हैं तथा इनके विचार क्रमबद्ध व तर्कयुक्त भी हो जाते हैं | बच्चे में अब संकल्पना का निर्माण करने की क्षमता आ जाती है। वह वर्गीकरण कर सकता है, श्रेणी बना सकता है तथा सोच विचार कर सकता है। यही कारण है कि इस आयु के बच्चों को स्कूल भेजना चाहिए |
अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था:
- किशोर संज्ञानात्मक विकास के चतुर्थ सोपान पर होते हैं जिसे अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था या औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational stage) कहते हैं | यह ग्यारह से सत्रह-अठारह वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में किशोर विविध विषयों पर सोचना प्रारम्म कर देते हैं । उनके सोच विचार में तर्क आ जाता है | अब किशोर परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं पर विचार करने लगता है | वह बातों की बारीकी, सम्बन्धिता, क्रमबद्धता आदि को समझने लगता है। प्रतीकात्मक (Symbolic) शब्द, उपमा आदि का आशय समझने लगता है |
ठोस से औपचारिक क्रिया कलापों में परिवर्तन (Transition from concrete to formal operations ):
- इस अवस्था के बालक विविध प्रकार के तर्क-वितर्क, चिन्तन एवं परिकल्पनाएँ करने लगते हैं । किशोर किसी भी समस्या के समाधान के लिये विविध संभावित विकल्पों के बारे में सोच सकता है | उसके विचार अब वास्तविकता से संभावनाओं की तरफ बढ़ते हैं । उदाहरण के लिये किसी दिन पिता के ऑफिस से कुछ खराब मन: स्थिति में लौटने पर छोटा बालक तो कुछ घबरा सा जाता है किन्तु किशोर ऐसी स्थिति में कई संभावित कारणों पर विचार करता है जैसे – पिता का स्वास्थ्य ठीक नहीं हो, पिता का ऑफिस में सहयोगी मित्रों से कुछ तनाव हो गया हो, पिता का अपने अधिकारी से कुछ झगड़ा हुआ हो, पिता को स्थानान्तरण आदेश प्राप्त हुए हों या पिता की पदोन्नति होते-होते रह गई हो तथा किसी अन्य को मिल गई हो आदि-आदि। इस प्रकार किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व किशोर सभी कल्पनात्मक परिस्थितियों पर विचार करते हैं ।
- किशोर अब मुंह जबानी ही गणित, विज्ञान या तर्क वितर्क के कई सवाल एवं समस्याएँ सुलझा लेता है। किसी भी सवाल या प्रश्न के पूछे जाने पर किशोर के मन मस्तिष्क में उस परिस्थिति का चित्रण हो जाता है जिसके बल पर वह समस्या का समाधान बौद्धिक क्षमता द्वारा कागज-कलम के बिना या वस्तु विशेष को सामने देखे बिना भी कर सकता है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चों को गणित के साधारण गुणा भाग व जोड़-बाकी पहले वस्तु दिखाकर फिर हाथ व उंगलियों पर गिनकर या कागज-कलम द्वारा करने पड़ते हैं जबकि एक किशोर मस्तिष्क में चित्रण द्वारा साधारण जोड़-बाकी, गुणा-भाग मुंह जबानी विना कागज-कलम के कर सकता है।
- किशोरावस्था आते-आते बालक की सोचने विचारने की क्षमता में क्रमबद्धता आ जाती है। उदाहरण के लिये छोटे बालक को ड्रॉइंग करने के लिये देने पर वह कुछ भी मनपसंद चित्र बनाकर उनमें अपनी पसंद के रंग भरेगा चाहे वे रंग वहाँ उपयुक्त हो या नहीं | किशोर को ड्रॉइंग का विषय दिये जाने पर पहले वह विषय वस्तु पर मनन करके मस्तिष्क में उसका चित्रण व उसमें भरे जाने वाले रंगों का एक खाका खींचेगा, फिर कागज पर हल्के हाथ से बाह्य रूप रेखा बनायेगा | रूप रेखा बनने पर उसमें क्रमिक रूप से हल्के से गहरे रंग भरेगा, और वास्तविक व आकर्षक रंग सज्जा के बाद अंतिम TRASS(Finishing touch) प्रदान करेगा जिससे वह तस्वीर बहुत ही आकर्षक व वास्तविक प्रतीत हो |
- आपने पूर्व में भी पढ़ा है कि किशोरावस्था दिवास्वप्न की अवस्था है। इस समय किशोर बैठे-बैठे ही बहुत सी कल्पनाएँ करने लगता है तथा कल्पनाओं में ही बहुत सी समस्याओं को भी सुलझा लेता है। जैसे चिड़िया के पंख होते हैं लेकिन अगर उनके भी पंख लगा दिये जायें तो क्या वे उड़ सकेंगे? ऐसे प्रश्नों का वे तार्किक परीक्षण कर “हाँ” या “नहीं” में जवाब देते हैं ।
संज्ञानात्मक विकास के कारण एक किशोर में बालकों की तुलना में निम्न परिवर्तन देखे जाते हैं —
1. किशोर तीव्र आलोचक (Critic) होते है | उनका अपने आस-पास के लोगों व वातावरण को देखने व परखने का नजरिया (Logical) तार्किक एवं विश्लेषणात्मक (Analytical) होता है, जिससे उनके व्यक्तिगत, सामाजिक व संवेगात्मक स्तर पर बहुत प्रभाव पड़ता है | अपनी आलोचनात्मक प्रवृत्ति के कारण ही किशोर अपने माता-पिता व बड़े बुजुर्गों की कमियों को चिन्हित करने लगते हैं जिससे माता-पिता व किशोर-किशोरियों के बीच विवाद व तनाव की स्थिति बन जाती है। हमारे भारतीय माता-पिता अभी तक बढ़ते किशोरों की आलोचना को सहन नहीं कर पाते तथा उनके आपसी संबंध बिगड़ जाते हैं ।
2. उत्तर किशोरावस्था आते-आते किशोर अपने से बड़ों के साथ सहायक (Subordinate) बन कर कार्य करना पसंद नहीं करते | अपनी बढ़ती हुई आलोचनात्मक क्षमताओं के कारण वे स्वयं के काल्पनिक प्रतिमान (069) स्थापित करते हैं तथा स्वयं को संसार में एक बड़ा सुधारकर्ता समझने लगते हैं | किशोर ये समझने व मानने लगते हैं कि बड़े उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर रहे हैं तथा फलतः वे काल्पनिक द्रोही (ldealistic rebelian) बन जाते हैं | युवा होते-होते यह विद्रोह की भावना स्वयं ही खत्म होती जाती है|
3. संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ किशोर स्वयं की एक अनोखी सी भाषा विकसित कर लेते हैं जिसमें हिन्दी-अंग्रेजी का संगम होता है | एक ही वाक्य का कुछ अंश वे अंग्रेजी में कहेंगे तो शेष वाक्यांश हिन्दी में | जैसे “लेट्स गो फोर ए पिकनिक, बहुत मजा करेंगे ! वे अपने शिक्षकों व बड़े बुजुर्गों के नये-नये अनोखे नाम निकालते हैं, जैसे कड़क शिक्षक को भंयकर, सदैव डॉंटते रहने वाले शिक्षक व माता-पिता को बादल-बिजली जैसे कई नाम दे देते हैं | बोर होना, मूड ठीक नहीं होना जैसे वाक्यांश उनके मुख्य संवादों में से हैं।
4. किशोर अपने रूप, रंग व अपनी आकृति के बारे में बहुत जागरुक होते & | उनकी सीमित समझ के कारण वे महसूस करते हैं कि सारी दुनिया उन्हें देख रही है | फलतः वे घण्टों शीशे के सामने खड़े होकर काल्पनिक दर्शकों के रूप में स्वयं को निहारते रहते हैं ।
5.. बहुधा किशोर सृजनात्मक होते है | अतः माता-पिता व बड़े बुजुर्गों को उनकी सृजनात्मकता को प्रोत्साहित करना चाहिये | बौद्धिक क्षमता के बढ़ने के साथ-साथ सृजनात्मकता भी बढ़ती जाती 8 | उनकी सृजनात्मकता के भरपूर विकास के लिये घर व विद्यालय का वातावरण दोस्ताना तथा कुछ लचीलापन लिये हुए होना चाहिये |
6. ज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ किशोरों की दिवास्वप्न देखने की प्रवृत्ति में भी वृद्धि होती है। उम्र के बढ़ने के साथ-साथ उनकी परिकल्पनाएँ धनात्मक व सुनिश्चित होने लगती हैं | अब उन्हें सपनों में असफल होने से भय नहीं लगता क्योंकि अब तक वे बुरे अनुभवों से जुझने के लिये सक्षम हो जाते हैं। दिवास्वप्न देखने की प्रवृत्ति के द्वारा वे कल्पनाओं में अपनी समस्याओं के कई संभावित विकल्पों को जाँच परख लेते हैं |
किशोरों में बौद्धिक विकास के साथ-साथ दीर्घावधि के मूल्य भी निश्चित होने लगते हैं । उम्र के बढ़ने के साथ-साथ स्वार्थ व आत्मवाद (Spiritual) की भावनाएँ कम होने लगती हैं तथा किशोर में तर्क-वितर्क, मूल्य एवं अभिवृत्तियाँ विकसित होने लगती हैं | इससे वे आत्मविश्वास, प्रतिस्पर्धा तथा स्वतंत्रता के दीर्घावधि मूल्य स्थापित करने में सक्षम होते हैं |
इस प्रकार किशोरावस्था में निम्न विशेषताओं का विकास होता है —
- तार्किक चिन्तन की क्षमता
- समस्या समाधान की क्षमता
- वास्तविक-अवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता
- वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में प्रक्षेपित करने की क्षमता
- परिकल्पनाओं को विकसित करने की क्षमता
Important Point :
- संज्ञान से आशय उन सभी मानसिक क्रियाओं व व्यवहारों से है जिनके द्वारा बालक सांसारिक गतिविधियों को ग्रहण करता है, अधिगमित करता है, स्मरण रखता है एवं इसके बारे में सोचता है।
- किशोर संज्ञानात्मक विकास के चतुर्थ सोपान पर होते हैं जिसे अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था या औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था कहते हैं । यह अवस्था ग्यारह से सत्रह–अठारह वर्ष तक की होती है।
- संज्ञानात्मक विकास के दौरान किशोर परिकल्पनात्मक ढ़ंग से समस्याओं पर विचार करने लगते हैं तथा बातों की सुक्ष्मता, सम्बन्धिता, क्रमबद्धता आदि को समझने लगता है|
- संज्ञानात्मक विकास के कारण एक किशोर में बालकों की तुलना में विविध परिवर्तन होते हैं ।
- किशोर इस अवस्था में तीव्र आलोचक होते हैं | वे बड़ों के साथ सहायक बनकर काम करना पसंद नहीं करते हैं, स्वयं की एक अनोखी भाषा विकसित कर लेते हैं, अपने रूप, रंग व आकृति के बारे में बहुत जागरूक होते हैं तथा बहुधा सृजनात्मक होते हैं |
- इस अवस्था में दीर्घावधि मूल्य भी निश्चित होने लगते हैं | इस समय विभिन्न विशेषताओं का विकास होता है –तार्किक चिन्तन एवं समस्या समाधान की क्षमता बढ़ती है, वे वास्तविक एवं अवास्तविक में अन्तर समझने लगते हैं तथा उनमें वास्तविक अनुभवों का काल्पनिक परिस्थितियों में प्रक्षेपण एवं परिकल्पनाओं को विकसित करने की क्षमता आ जाती है।
- संज्ञानात्मक विकास बालक की मानसिक योग्यता व मस्तिष्क के विकास पर निर्भर करता है ।
- मानसिक प्रक्रियाएँ संज्ञान, भाव बोध एवं क्रियावृत्ति के तीन चरणों में पूरी होती हैं |
- शैशवावस्था में शिशु संज्ञानात्मक विकास की संवेदी गामक अवस्था; पूर्व बाल्यावस्था में पूर्व संक्रियात्मक अवस्था; बाल्यावस्था में मूर्त संक्रियात्मक तथा किशोरवय में अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था में होता है।
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