पवनें Pawane Winds परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं
- क्षैतिज रूप में गतिशील वायु को पवन कहते हैं । पवनें उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर बहती हैं। यह वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने का प्रकृति का प्रयास है। यदि पृथ्वी स्थिर होती है और इसका धरातल एक समान समतल होता तो पवनें उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब वाले स्थानों की ओर, समदाब रेखाओं पर समकोण बनाते हुए, सीधी चलतीं । किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है, क्योंकि पवनों की दिशा और गति को कई कारक प्रभावित करते हैं। ये कारक निम्नलिखित हैं :
1. दाब प्रवणता (Pressure Gradient)
- किन्हीं दो स्थानों के बीच वायुदाब के अन्तर को दाब प्रवणता कहते हैं। यह प्रवणता क्षैतिज दिशा में होती है । दाब प्रवणता को बैरोमेट्रिक ढाल भी कहते हैं । किन्हीं दो स्थानों के बीच दाब प्रवणता अधिक होने पर पवनों की गति अधिक होती है, इसके विपरीत दाब प्रवणता कम होने पर पवनों की गति धीमी होती है ।
2. पृथ्वी की परिभ्रमण / घूर्णन गति (Rotation of the Earth)
- पृथ्वी की परिभ्रमण / घूर्णन गति के कारण पवनें विक्षेपित हो जाती हैं। इसे ‘कारिऑलिस बल (Coriolis Force) और इस बल के प्रभाव को ‘कारिऑलिस प्रभाव’ (Coriolis Effect) कहते हैं । इस प्रभाव के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बाई ओर विक्षेपित हो जाती है । इस प्रभाव को फेरल नामक वैज्ञानिक ने सिद्ध किया था, इसलिए इसे फेरल का नियम भी कहते है ।
3. धरातलीय स्वरूप (Land Forms)
- पृथ्वी पर धरातलीय असमानताएँ पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं, जिससे पवनों की दिशा और गति प्रभावित होती है। अपेक्षाकृत समतल महासागरीय तल पर घर्षण की मात्रा कम होती है, जिससे पवनें अधिक तेज गति से प्रवाहित होती हैं। इसके विपरीत स्थलखण्डों पर घर्षण की मात्रा अधिक होती है जिससे पवनों की गति काफी धीमी हो जाती है । यही कारण है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में महासागरीय विस्तार के कारण पछुआ पवनें अधिक तेज तथा निश्चित दिशा में प्रवाहित होती हैं। जबकि उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलीय भागों के कारण पछुआ पवनों की गति अपेक्षाकृत धीमी हो जाती है।
पवनों का नामकरण ( Nomenclature of Winds)
- जिस दिशा में पवनें चलती हैं, उसी दिशा के अनुसार उनका नामकरण किया जाता है । पश्चिम दिशा से आ रही पवनों को पछुआ (Westerly) तथा पूर्व दिशा से आ रही पवनों को पुरवा (Easterly) कहते हैं (चित्र – 13.3 ) ।
पवनों के प्रकार (Classification of Winds)
- पवनों को उनके प्रभाव क्षेत्र व अवधि के आधार पर तीन वर्गों में रखा जाता है –
(i) स्थाई पवनें (Permanent Winds)
(ii) सामयिक पवनें (Periodical Winds)
(iii) स्थानीय पवनें (Local Winds)
(i) स्थाई पवनें (Permanent Winds)
- जो पवनें वर्षभर एक निश्चित दिशा तथा निश्चित क्रम में चलती हैं, उन्हें स्थाई पवनें कहते हैं। इन्हें प्रचलित पवनें, ग्रहीय पवनें, भूमण्डलीय पवनें, सनातनी पवनें आदि नामों से भी जाना जाता है। ये पवनें वायुदाब की पेटियों से सम्बन्धित हैं । इनमें प्रमुख हैं व्यापारिक पवन, पछुआ पवन तथा ध्रुवीय पवन।
व्यापारिक पवनें (Trade Winds)
- दोनों गोलार्द्ध में उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटियों से विषुवतीय निम्न वायुदाब पेटी की ओर चलने वाली हवाओं को व्यापारिक पवनें कहते हैं । ये पवनें सीधी न चलकर फैरल के नियम के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाहिनी ओर और दक्षिण गोलार्द्ध में अपने बाईं ओर विक्षेपित हो जाती हैं । अतः दिशानुरूप इन पवनों को उत्तरी गोलार्द्ध में ‘उत्तरी पूर्वी व्यापारिक पवनें’ तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में ‘दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनें’ कहा जाता है। ये पवनें प्राचीन काल में पालयुक्त जलयानों को व्यापार में सुविधा प्रदान करती थी, इसलिए इन्हें ‘व्यापारिक पवन’ कहा जाता है ।
इन पवनों की विभिन्न भागों में विभिन्न विशेषताएँ होती हैं। उपोष्ण उच्च वायुदाब के पास हवाओं के नीचे उतरने के कारण ये हवाएँ शुष्क और शांत होती हैं। ये पवनें जैसे-जैसे आगे अग्रसर होती हैं मार्ग में जलराशियों से जलवाष्प ग्रहण कर लेती है । विषुवत् रेखा के पास पहुँचते-पहुँचते ये हवाएँ जलवाष्प से लगभग संतृप्त हो जाती हैं, जहाँ अस्थिर होकर वर्षा करती है । विषुवत् रेखा के पास दोनों गोलाद्धों की व्यापारिक पवनें आपस में टकराती हैं और संवहनीय धारा के रूप में ऊपर उठकर घनघोर वर्षा करती है ।
पछुआ पवनें (Westerlies)
- दोनों गोलार्द्धा में उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटियों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटियों की ओर बहने वाली पवनों को पछुआ पवनें कहते हैं। इनकी दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर होती है । उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलखण्ड की अधिकता तथा मौसमी परिवर्तन के कारण इन पवनों का पश्चिमी प्रवाह अस्पष्ट हो जाता है । दक्षिणी गोलार्द्ध में महासागरीय विस्तार के कारण ये पवनें अधिक नियमित और स्थाई होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में इनका वेग भी अधिक होता है। इनकी प्रचण्डता के कारण ही इन्हें दक्षिणी गोलार्द्ध में 40°–50° अक्षांशों में ‘गरजती चालीसा’ ( Roaring Forties), 50° दक्षिणी अक्षांश के पास ‘भयंकर पचासा’ (Furious Fifties) तथा 60° दक्षिणी अक्षांश के पास ‘चीखती साठा’ (Shrieking/Screaming Sixties) कहते हैं ।
- ध्रुवों की ओर पछुआ पवनों की सीमा अस्थिर होती है। ये हवाएँ मौसम में अस्थिरता उत्पन्न करती है ।
ध्रुवीय पवनें (Polar Winds)
- दोनों गोलार्द्धा में ध्रुवीय उच्च वायुदाब से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की ओर चलने वाली हवाओं को ध्रुवीय पवनें कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण – पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर होती है। ध्रुवीय शीत क्षेत्रों से चलने के कारण ये हवाएँ अत्यन्त ठण्डी तथा शुष्क होती है। तापमान कम होने के कारण इनकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता भी कम होती है । उत्तरी गोलार्द्ध में तीव्र गति से चलने वाली ध्रुवीय पवनों को ‘नॉरईस्टर’ (Nor’easter) कहते हैं । जिसका सर्वाधिक प्रभाव उत्तर पूर्वी कनाडा एवं यू.एस.ए. पर पड़ता है ।
(ii) सामयिक पवनें (Periodical Winds) –
- जिन हवाओं की दिशा में मौसम अथवा समय के अनुसार परिवर्तन होता है, उन्हें सामयिक पवनें कहते हैं; इनमें निम्न प्रकार की पवनें सम्मिलित की जाती हैं-
(अ) मानसूनी पवनें (Monsoon Winds)
(ब) स्थल समीर और सागर समीर (Land Breeze and Sea Breeze)
(स) पर्वत समीर और घाटी समीर (Mountain Breeze and Valley Breeze)
(अ) मानसूनी पवनें
- मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ ‘मौसम’ होता है । अतः मानसूनी पवनें उन || हवाओं को कहते हैं जो मौसम के अनुसार अपनी दिशा परिवर्तित कर लेती हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में निम्नलिखित संकल्पनाएँ प्रचलित है :-
तापीय संकल्पना (Thermal Concept)
- इस विचारधारा के अनुसार मानसून की उत्पत्ति पृथ्वी के असमान संगठन (स्थलीय तथा जलीय भाग) तथा उनके गर्म एवम् ठण्डा होने के विरोधी स्वभाव के कारण होती है। गर्मियों में अधिक सूर्यातप के कारण स्थलीय भाग सागरों की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाने के कारण निम्न दाब के क्षेत्र हो जाते हैं, जिससे सागरीय भागों से स्थल की ओर हवाएँ चलने लगती हैं। इसे ग्रीष्मकालीन मानसून कहते हैं। इसके विपरीत सर्दियों में सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण स्थलीय भाग उच्च दाब के केन्द्र बन जाते हैं तथा सागरीय भाग निम्न दाब के केन्द्र । परिणामस्वरूप स्थलीय भाग से सागरों की ओर हवाएँ चलती हैं जिन्हें शीतकालीन मानसून कहते हैं। इसे ही उत्तरी-पूर्वी मानसून भी कहते हैं (चित्र 13.4 ) ।
फ्लॉन की गतिक संकल्पना (Dynamic Concept of Flohn )
- फ्लॉन ने मानसून की तापीय उत्पत्ति का खण्डन करके गतिक उत्पत्ति (Dynamic Origin) की संकल्पना का प्रतिपादन किया । इनके अनुसार मानसून हवाओं की उत्पत्ति मात्र वायुदाब तथा हवाओं की पेटियों के खिसकाव के कारण होती है। विषुवत् रेखा के पास व्यापारिक पवनों के मिलने से अभिसरण (Convergence) का आविर्भाव होता है । इसे अन्तः कटिबन्धीय अभिसरण (Inter-Tropical Convergence-ITC) कहते हैं । इसकी उत्तरी सीमा को NITC तथा दक्षिणी सीमा को SITC कहते हैं। इस ITC के मध्य डोलड्रम की मेखला होती है, जिसमें विषुवतीय ‘पछुआ हवाएँ’ चलती हैं। सूर्य के उत्तरायण की स्थिति के समय NITC खिसककर 30° उत्तरी अक्षांश तक विस्तृत हो जाती है जिससे दक्षिण पूर्वी एशिया इसके अन्तर्गत आ जाता है । अतः इन भागों पर डोलड्रम की विषुवत् रेखीय पछुआ पवनें स्थापित हो जाती हैं, जो कि गर्मी की दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनें होती हैं। इसी प्रकार सूर्य के दक्षिणायन होने पर दक्षिण – पूर्वी एशिया से NITC हट जाती है तथा उस पर उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवनें पुनः स्थापित हो जाती है। यह शीतकालीन उत्तरी-पूर्वी मानसून होता है।
आधुनिक संकल्पना (Modern Concept)
- इसे ‘जेट स्ट्रीम’ संकल्पना के नाम से भी जाना जाता है । दक्षिणी एशिया में यह जेट स्ट्रीम नामक तीव्र प्रवाह क्षोभमण्डल में लगभग 12 किमी. की ऊँचाई पर पश्चिम से पूर्व की ओर चलता है । इसे यहाँ पर उपोष्ण कटिबन्धीय पछुआ जेट स्ट्रीम कहते हैं। 60° उत्तरी अक्षांश पर इसकी ऊँचाई 9 से 10 किमी. तथा ध्रुवों पर ऊँचाई और कम होती है । उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दियों में इस उच्च तलीय पछुआ जेट स्ट्रीम का हिमालय तथा तिब्बत पठार के यांत्रिक अवरोध के कारण विभाजन हो जाता है । उत्तरी शाखा तिब्बत के पठार के उत्तर में चापाकार रूप में पश्चिम से पूर्व की ओर तथा मुख्य शाखा तिब्बत के पठार तथा हिमालय के दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। मुख्य शाखा अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के ऊपर से होकर चक्रवातीय मार्ग का अनुसरण करती है। इसी के प्रभाव से शरदकालीन मानसून की उत्पत्ति होती है।
- गर्मियों में 21 मार्च के बाद सूर्य की स्थिति उत्तरायण हो जाती है, जिस कारण ध्रुवीय धरातलीय उच्च वायुदाब कमजोर होने लगता है । उच्च तलीय ध्रुवीय भँवर के उत्तर की ओर खिसकने के कारण उच्चतलीय पछुआ जेट स्ट्रीम भी उत्तर की ओर खिसकने लगती है। भारत से यह जेट स्ट्रीम मध्य जून तक पूर्णतः लुप्त हो जाती है। अब जेट स्ट्रीम तिब्बत के पठार के उत्तर में शीतकालीन मार्ग के विपरीत बहने लगती है । ईरान के उत्तरी भाग एवम् अफगानिस्तान के ऊपर इस उच्च तटीय जेट स्ट्रीम का प्रवाह मार्ग चक्रवातीय वक्र (घड़ी की सूई के विपरीत दिशा में) के रूप में होता है, जिससे क्षोभमण्डल में गतिक निम्नदाब तथा चक्रवातीय दशा बन जाती है । यह उच्च तलीय निम्न दाब उत्तर-पश्चिमी भारत व पाकिस्तान तक विस्तृत होता है । इसके नीचे धरातल पर पहले से ही तापजन्य निम्न दाब स्थित होता है । इस स्थिति के कारण धरातलीय निम्न दाब से हवाएँ ऊपर उठती हैं तथा उच्च तलीय निम्न दाब इन हवाओं को अधिक ऊपर तक खींचता है जिस कारण दक्षिण-पश्चिम मानसून का अचानक प्रस्फोट (बौछार) होता है ।
(ब) स्थल समीर और सागर समीर
- ये मानसूनी हवाओं का ही छोटा रूप है, जिनकी दिशा में 24 घण्टे में दो बार परिवर्तन होता है । स्थलीय तथा सागरीय समीर के चलने का एकमात्र कारण स्थल तथा जल के गर्म तथा ठण्डा होने में परस्पर विरोधी स्वभाव का होना है । सागर तटीय क्षेत्रों में या झील के किनारों पर इन पवनों का अनुभव प्रतिदिन किया जा सकता है ।
स्थल समीर (Land Breeze )
- रात्रि के समय स्थलीय भाग में जल की अपेक्षा तीव्र गति से पार्थिव विकिरण होने से ऊष्मा का ह्रास अधिक होता है, जिससे स्थलीय भाग जल की अपेक्षा शीघ्र ठण्डा हो जाता है ।
- इसके कारण स्थलीय भाग पर उच्च दाब तथा सागरों पर निम्न दाब बन जाता है । परिणामस्वरूप स्थलीय भाग से सागर की ओर हवाएँ चलने लगती हैं, जिन्हें स्थलीय – समीर कहते हैं । ये हवाएँ शुष्क होती हैं। इन हवाओं के कारण तटीय भागों की जलवायु पर समकारी प्रभाव पड़ता है । यही कारण है कि भारत में कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई आदि नगरों की जलवायु सम पाई जाती है, अर्थात् न अधिक गर्म और न अधिक ठण्डी ।
सागर समीर (Sea Breeze )
- दिन के समय सूर्य की किरणों से स्थलीय भाग जल की अपेक्षा शीघ्र गर्म हो जाते हैं, जिससे तटवर्ती स्थलीय भागों पर निम्न दाब तथा समुद्री भागों पर उच्च दाब बन जाते हैं । परिणामस्वरूप सागरीय भागों से स्थल की ओर हवाएँ चलने लगती हैं, जिन्हें सागरीय समीर कहते हैं । इन हवाओं का संचार सुबह 10-11 बजे प्रारम्भ होता है तथा 1 से 2 बजे के बीच सर्वाधिक सक्रिय हो जाता है तथा रात्रि में 8 बजे तक समाप्त हो जाता है। उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में तटीय भागों पर इन हवाओं के आगमन के साथ ही 15-20 मिनिट के अन्दर 5°-7° सेल्शियस तापमान गिर जाता है। परिणामस्वरूप मौसम सुहावना तथा स्वास्थ्यप्रद हो जाता है। ये हवाएँ आगे चलकर तटीय भागों पर वर्षा करती है। इन हवाओं का संचार केवल गर्मियों में दिन के समय ही हो पाता है।
(स) पर्वत समीर और घाटी समीर
- दिन के समय सूर्य की किरणों से पर्वतों के ढाल घाटी-तल की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाते हैं, जिससे यहाँ निम्न दाब और घाटी-तल में उच्च दाब बन जाता है । परिणामस्वरूप हवाएँ घाटी – तल से पर्वतीय ढाल की ओर बहने लगती है । इसे घाटी-समीर कहते हैं । सूर्यास्त के बाद यह व्यवस्था पलट जाती है । रात्रि के समय पर्वतीय ढालों पर विकिरण द्वारा ताप ह्मास अधिक होता है। इससे पर्वतीय ढालों पर उच्च दाब और घाटी – तल में निम्न दाब बन जाता है। ऐसी परिस्थिति में पर्वतीय ढालों की ऊँचाईयों से ठण्डी और भारी हवा नीचे घाटी की ओर उतरने लगती है। इसे पर्वत – समीर कहते हैं ।
- इन हवाओं के कारण तापीय प्रतिलोमन की स्थिति बन जाती है। इसके कारण रात्रि में घाटियों में पाला या तुषार पड़ता है। जबकि ऊपरी भाग पालामुक्त रहते हैं। भारत में हिमाचल प्रदेश में ऐसी दशाएँ विकसित होती हैं ।
(iii) स्थानीय पवनें (Local Winds)
- जो हवाएँ किसी स्थान विशेष के तापमान और वायुदाब में अन्तर के कारण चलती हैं, उन्हें स्थानीय पवनें कहते हैं। ये पवनें वहाँ चलने वाली प्रचलित पवनों के विपरीत स्वभाव वाली होती हैं। ये पवनें स्थानीय विशेषताओं के अनुरूप गर्म, ठण्डी, बर्फ से भरी, धूल से युक्त आदि कई प्रकार की हो सकती हैं। इनसे प्रभावित क्षेत्रों में ये लाभकारी अथवा हानिकारक प्रभाव डालती है। मुख्य स्थानीय पवनों में चिनूक, फोन, बोरा, सिराको, हरमट्टान, खमसिन, मिस्ट्राल, ब्लिजार्ड, ब्रिक फिल्डर, विली – विली आदि हैं ।
चिनूक तथा फॉन (Chinook & Foehn)
- पर्वतीय ढालों के सहारे चलने वाली गर्म और शुष्क स्थानीय हवाओं को उत्तरी अमेरिका में ‘चिनूक’ तथा यूरोप में ‘फॉन’ कहते हैं । चिनूक पवनों का प्रभाव संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रेयरी मैदानों पर विशेष रूप से पाया जाता है। मुख्यरूप से ये पवनें शीत ऋतु में चलती हैं। इस ऋतु में उत्तरी अमेरिका के वृहत् मैदानों में बर्फ की परत बिछ जाती है । किन्तु जब ये गर्म व शुष्क चिनूक हवाएँ रॉकी पर्वतों को पार कर पूर्व के प्रेयरी घास के मैदानों में उतरती हैं तो उस बर्फ की परत को शीघ्र ही पिघला देती हैं। इसलिए इन पवनों को हिम-भक्षिणी ( Snow Eaters) पवनें भी कहते हैं।
- चिनूक पवनों के समान गुणों वाली ‘फॉन’ पवनें हैं, जो कि आल्प्स पर्वत के दक्षिणी ढाल से चढ़कर उत्तर की ओर ढाल के सहारे नीचे उतरती है । इन पवनों के कारण प्रभावित क्षेत्रों का ताप एकदम तेजी से बढ़ जाता है, अर्थात् एक या दो मिनिट में 8° से 10° सेल्शियस तक । इससे वहाँ जमी बर्फ पिघल जाने से घास उग आती है, पशुओं के लिए चारागाह तैयार हो जाते हैं, तथा कृषि आरम्भ कर दी जाती है। इसका सर्वाधिक प्रभाव स्विजरलैण्ड में होता है, जहाँ ये हवाएँ बसन्त तथा पतझड़ ऋतुओं में अधिक चलती हैं ।
सिराको (Sirocco ) –
- यह गर्म, शुष्क तथा रेत से भरी हवा होती है, जो कि सहारा के रेगिस्तान से उत्तर दिशा में भूमध्यसागर की ओर चलकर इटली, स्पेन आदि को प्रभावित करती है। सिराको के साथ लाल रेत की मात्रा अधिक होती है । जब यह भूमध्य सागर से होकर गुजरती है तो नमी धारण कर लेती हैं। दक्षिण इटली में लाल मिट्टी वर्षा के साथ नीचे उतरती है, इस वर्षा को ‘रक्त ‘वर्षा’ (Blood rain) के नाम से जाना जाता है। एटलस पर्वत के उत्तरी ढाल के सहारे नीचे उतरने पर इसकी शुष्कता तथा तापमन बढ़ जाते हैं । इन हवाओं को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इटली में सिराको, सहारा में सिमूम, लीबिया में गिबली ( Gibli ), ट्यूनिशिया में चिली (Chili ), स्पेन में लेवेश (Leveche) आदि नामों से जाना जाता है। अरब के रेगिस्तान में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा कों सिमूम (Simoom) कहते हैं । इन हवाओं का वनस्पति, कृषि एवम् फलों के बागों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है ।
हरमट्टान (Harmattan)
- अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान के पूर्वी भाग में उत्तर-पूर्व तथा पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा में चलने वाली गर्म व शुष्क हवाओं को ‘हरमट्टान’ कहते हैं। इनकी गति तीव्र होती है। अफ्रीका का पश्चिमी तट उष्ण तथा आर्द्र होता है, जिससे मौसम अस्वास्थ्यकर हो जाता है । हरमट्टान के आने पर यहाँ का मौसम शुष्क हो जाने के कारण सुहावना एवम् स्वास्थ्यप्रद हो जाता है। इसी प्रभाव के कारण गिनी तट पर इस हवा को ‘डॉक्टर हवा’ (Doctor Winds) की संज्ञा दी जाती है ।
- इसी तरह की गर्म एवम् शुष्क हवाएँ आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रान्त में चलती है जिन्हें (Brickfielder) कहते हैं ।
मिस्ट्रल (Mistral)
- ये ठण्डी, शुष्क और तीव्र गति से चलने वाली हवाएँ हैं, जो कि भूमध्य सागर के उत्तरी-पश्चिमी भाग, विशेषकर स्पेन तथा फ्रान्स को प्रभावित करती है । मिस्ट्रल सामान्य रूप से 56–64 किमी. प्रति घण्टे की चाल से चलती हैं, परन्तु कभी-कभी इनकी गति 128 किमी. प्रति घण्टे तक हो जाती है। इससे वायुयानों के चलने में कठिनाई होती है । इन हवाओं से बचने के लिए इनकी प्रवाह – दिशा के समकोण पर बाग तथा झाड़ियाँ लगाई जाती हैं । इन हवाओं के आने पर तापमान हिमांक के नीचे चला जाता है ।
बोरा (Bora)
- यह शुष्क तथा ठण्डी प्रचण्ड हवा है, जो कि एड्रियाटिक सागर के पूर्वी किनारे पर चलती है। विशेषकर उत्तरी इटली का भाग इन हवाओं द्वारा अधिक प्रभावित होता है । इसकी तेज गति के कारण रास्ते में इमारतों की छतें उड़ जाती हैं तथा पेड़-पौधे धराशायी हो जाते हैं । कभी-कभी तो ये कई दिनों क लगातार चलती हैं । नमीयुक्त होने से इनसे वर्षा भी हो जाती है ।
ब्लिजर्ड (Blizzard )
- इन्हें हम झंझावात भी कहते हैं। ये मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा तथा साइबेरिया में चला करती है । इनकी गति 80-96 किमी. प्रति घण्टा होती है । हिम कणों से युक्त होने के कारण इनसे दृश्यता समाप्त हो जाती है। इनके आगमन से तापमान अचानक हिमांक के नीचे चला जाता है तथा सतह बर्फ से ढक जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पश्चिम-पूर्व धरातलीय अवरोध के अभाव में ये हवाएँ समस्त मध्यवर्ती मैदान को प्रभावित करती हुई दक्षिणी प्रान्तों तक पहुँच जाती है। यहाँ इन्हें ‘नार्दन’ (Northern) तथा साइबेरिया में ‘बुरान’ (Buran) कहते हैं।
लू (Loo)
- उत्तरी भारत और पाकिस्तान के मैदानी क्षेत्रों में गर्मियों में साधारणतः दोपहर बाद, अति गर्म और शुष्क हवाएँ पश्चिम दिशा से बहती है । इन्हें ही लू कहते हैं। इनका तापमान लू 40° से 50° सेल्शियस के बीच रहता है; इस मौसम में घर से बाहर निकले व्यक्तियों को लू लगने की संभावना रहती है । हन हवाओं के कारण प्रभावित क्षेत्र का मौसम कष्टदायक हो जाता है।
महत्वपूर्ण बिन्दु –
- वायुमण्डल द्वारा पृथ्वी के धरातल पर पड़ने वाला दबाव, बैरोमीटर द्वारा इसका मापन होता है । वायुदाब को प्रभावित करने वाले कारक-तापमान, समुद्र तल से ऊँचाई, पृथ्वी का परिभ्रमण/ घुर्णन, जलवाष्प आदि ।
- वायुदाब की पेटियों का ऋतुवत् परिवर्तन होता है । धरातल से ऊँचाई के साथ वायुदाब कम होता है ।
- पवनें तथा उनकी दिशा व गति को प्रभावित करने वाले कारक – दाब प्रवणता, पृथ्वी की परिभ्रमण / घुर्णन गति, धरातलीय स्वरूप आदि होते है ।
वायुदाब की पेटियाँ (Air Pressure Belts) FAQ –
Q 1. पूरे वर्ष एक ही दिशा में प्रवाहित होने वाली पवन क्या कहलाती है?
Ans – [ b ]
Q 2. उपोष्ण उच्च दाब से विषुवत रेखीय निम्न दाब दाब की ओर चलने वाली पवनें क्या कहलाती है?
Ans – [ a ]
Q 3. व्यापारिक पवनें कहाँ से चलती हैं?
Ans – [ c ] (SSC 2004)
Q 4. व्यापारिक हवाएँ किन अक्षांशों से किन अक्षांशों की ओर बहती है?
Ans – [ c ]
Q 5. उच्च दाब क्षेत्र से भूमध्य सागर की ओर चलने वाली पवनें होती है—
Ans – [ b ] (UPPCS 1992)