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राजस्थान की मिट्टियाँ

( राजस्थान की मिट्टियाँ ) Rajasthan ki mittee

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राजस्थान के पश्चिमी भाग की मिट्टियों में बालू की मात्रा 90 से 95 प्रतिशत तक तथा मटियार की मात्रा 15 से 10 प्रतिशत तक पाई जाती है, जो इन मिट्टियों की कम उपजाऊ शक्ति होने का परिचायक है।
अरावली पर्वतमाला के पूर्वी भाग की मिट्टियों में लेटेराइट, लाल, दोमट, कछारी एवं मध्यम काली प्रमुख हैं।
राज्य की मिट्टियाँ मूल रूप से निर्वासित एवं अवशिष्ट प्रकार की हैं। निर्वासित मिट्टियाँ मैदानी भागों में एवं अवशिष्ट मिट्टियाँ पहाड़ी एवं पठारी भागों में मिलती हैं।

राजस्थान की मिट्टियों का वर्गीकरण

1. रेतीली बलुई मिट्टी

  • यह मिट्टी मुख्यत: बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, चूरू, जोधपुर जिलों, जालोर, पाली एवं नागौर जिलों के पश्चिमी भागों एवं श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों के मध्यवर्ती भागों को छोड़कर सम्पूर्ण क्षेत्र में मिलती है।

इस मिट्टी के तीन प्रमुख प्रकार हैं

  • (A) लाल रेतीली मिट्टी–नागौर, जोधपुर, जालोर, पाली,सीकर एवं झुंझुनूं जिलों के कुछ भागों में मिलती है।
  • (B) पीली-भूरी रेतीली मिट्टी–नागौर एवं पाली जिलों के कुछ भागों में मिलती है। इसे ‘सीरोजम मिट्टी भी कहते हैं
  • (C) खारी या नमकीन मिट्टी-राज्य के जैसलमेर, बाड़मेर, नागौर, बीकानेर एवं जोधपुर जिलों की निम्न भूमियों में मिलती है (लवणीय मिट्टी)।
  • कच्छ के रन का भाग, जो जालोर व बाड़मेर में फैला है, जहाँ की मिट्टी लवणीय है इस क्षेत्र को सांचौर (जालोर) में नेहड़’ कहते हैं। मोटे कण, नमी धारण करने की निम्न क्षमता, नाइट्रोजन की कमी तथा कैल्सियम लवणों की अधिकता रेतीली मिट्टी की प्रमुख विशेषताएँ हैं। यह मिट्टी पवन अपरदन के प्रति संवेदनशील है। इसमें जीवांश की मात्रा कम होती है।

2. भूरी रेतीली मिट्टी

  • राज्य के अर्द्धमरुस्थलीय जिलों विशेषकर बाड़मेर, जालोर, जोधपुर, सिरोही, पाली, नागौर, सीकर एवं झुंझुनूं में भूरी रेतीली मिट्टी मिलती है।
  • इस क्षेत्र में ज्वार, बाजरा, मूंग एवं मोठ की बारानी कृषि होती है।नाइट्रोजन की अधिकता इस मिट्टी को उपजाऊ बनाती है। (दलहन फसलों हेतु उपयुक्त)
  • इस क्षेत्र में 90 से 150 सेमी. की गहराई पर चूने की सतह मिलती है, जिसे Hard-Pan कहते हैं।

3. लाल-पीली मिट्टी

  • इस मिट्टी का विस्तार सवाईमाधोपुर, करौली, भीलवाड़ा, टोंक एवं अजमेर जिलों में है।
  • इन मिट्टियों का पीला रंग लौह-ऑक्साइड’ के जलयोजन की उच्च मात्रा के कारण है।
  • यह मिट्टी ग्रेनाइट, शिस्ट, नीस इत्यादि चट्टानों के टूटने से बनी  है। इस मिट्टी में ह्यूमस एवं कार्बोनेट पदार्थों की कमी रहती है।

4. लाल-लोमी मिट्टी

  • इस प्रकार की मिट्टी डूंगरपुर जिले एवं उदयपुर जिले के दक्षिणी मध्य भाग में मिलती हैं।
  • लौह ऑक्साइड की अधिकता के कारण इस मिट्टी का रंग लाल होता है।
  • चीन स्फटकीय एवं कायान्तरित चट्टानों से निर्मित हुई है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा कैल्सियम के लवणों की कमी एवं लौह तत्त्वों तथा पोटाश के तत्वों की अधिकता होती है।
  • यह मिट्टी मक्के की फसल के लिए विशेष उपयोगी है।

5. मिश्रित लाल काली मिट्टी

  • यह मिट्टी उदयपुर, राजसमन्द, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ एवं बाँसवाड़ा जिलों के अधिकांश भागों में मिलती है।
  • यह मिट्टी मालवा के पठार की काली मिट्टी एवं दक्षिणी अरावली की लाल मिट्टी का मिश्रण है।
  • इस मिट्टी में फॉस्फेट, नाइट्रोजन, कैल्सियम एवं कार्बनिक पदार्थों की कमी होती है।

6. मध्यम काली मिट्टी

  • राज्य के दक्षिणी-पूर्वी भागों विशेषकर झालावाड़, बूंदी, बारां, कोटा आदि जिलों में यह मिट्टी दोमट (मटियार) के रूप में मिलती है।
  • इस क्षेत्र की नदी-घाटियों में काली एवं कछारी मिट्टियों के मिश्रण पाये जाते हैं।
  • सामान्यतया इस मिट्टी में फॉस्फेट, नाइट्रोजन व जैविक पदार्थों की कमी होती है लेकिन केल्सियम तथा पोटाश की अधिकता रहती है। यह मिट्टी कपास, सोयाबीन, अफीम एवं संतरे के उत्पादन हेतु विशेष उपयोगी है।

7. कछारी मिट्टी (जलोढ़)

  • यह मिट्टी राज्य के पूर्वी भागों–भरतपुर, धौलपुर, दौसा, जयपुर, टोंक एवं सवाईमाधोपुर जिलों में मिलती है।
  • इसमें सामान्यत: जिंक (जस्ता) की कमी होती है।
  • इस मिट्टी का रंग हल्का लाल होता है एवं पानी का रिसाव धीमा होता है, इसलिए पानी मिलने पर यह मिट्टी कृषि के लिए बहुत उपयोगी है। परन्तु अत्यधिक सिंचाई की वजह से इसमें लवणीयत की समस्या होती है।
  • इस मिट्टी में नाइट्रोजन तत्वों की अधिकता होती है एवं फॉस्फेट तथा कैल्सियम लवणों की कमी रहती है।
  • यह मिट्टी गेहूं, चावल, कपास, जौ, ज्वार, सरसों आदि फसलों की कृषि हेतु उपयुक्त है।

8. भूरी मिट्टी

  • यह मिट्टी बनास अपवाह क्षेत्र—भीलवाड़ा, अजमेर, टोंक एवं सवाईमाधोपुर में पाई जाती है।
  • कृषि के लिए उपयुक्त इस मृदा में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस तत्वों का अभाव होता है।

9. भूरी रेतीली कछारी मिट्टी

  • राज्य में अलवर एवं भरतपुर जिलों के उत्तरी भाग तथा श्रीगंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों के मध्य भागों में यह मिट्टी मिलती है। इसमें तीव्र जल निकासी होती है।
  • इस मिट्टी में चूने, फॉस्फोरस एवं ह्यूमस की कमी मिलती है।
  • इन भागों में सिंचाई की अच्छी सुविधा के कारण सरसों, कपास, गेहूँ एवं अन्य बागाती फसलों का उत्पादन किया जाता है।

10. पर्वतीय (पथरीली) मिट्टी

  • यह मिट्टी अरावली पर्वतमाला के ढालों पर सिरोही, उदयपुर, राजसमन्द, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़, अजमेर एवं भीलवाड़ा जिलों के पर्वतीय भागों में मिलती है।
  • इस मिट्टी की गहराई कम होने के कारण यह कृषि के लिए अनुपयुक्त है।
  • राजस्थान सरकार के कृषि विभाग ने मिट्टियों को उर्वरता के आधार पर 14 भागों में बांटा है।
  • मिट्टियों का रासायनिक तत्त्वों के आधार पर नई पद्धति में वर्गीकरण अमेरिकी वैज्ञानिकों ने किया है। राज्य में इस वर्गीकरण के अनुसार पाँच प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं

(i) एरिडीसोल्स (शुष्क मिट्टी)।
(ii) अल्फीसोल्स (जलोढ़ मिट्टी)।
(iii) एन्टीसोल्स (पीली-भूरी मिट्टी)।
(iv) इन्सेप्टीसोल्स (आई मिट्टी)।
(v) वर्टीसोल्स (काली मिट्टी)।

  • राजस्थान में लगभग 7.2 लाख हेक्टेयर भूमि क्षारीय है। इसका विस्तार खासतौर पर जोधपुर, पाली, भीलवाड़ा, अजमेर, भरतपुर, टोंक, नागौर, सिरोही, जालोर, बाड़मेर एवं चित्तौड़गढ़ जिलों में है। क्षारीय भूमि को लवणीय, नमकीन, ऊसर एवं रेही (रेह) के नाम से भी जाना जाता है। सोडियम कार्बोनेट, सोडियम सल्फेट एवं सोडियम क्लोराइड के साथ कैल्सियम एवं मैग्नेशियम क्षारों के मिश्रण से रेह बनती है।

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